चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्,
श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्,
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
भावार्थ : चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥ श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्,
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति, स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि, दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥
भावार्थ : हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है॥२॥ एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि, दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
भावार्थ : स्वयं को तृण से भी छोटा समझते हुए, वृक्ष जैसे सहिष्णु रहते हुए, कोई अभिमान न करते हुए और दूसरों का सम्मान करते हुए सदा श्रीहरि का भजन करना चाहिए ॥३॥ अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
न धनं न जनं न सुन्दरीं, कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे, भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥
भावार्थ : हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी या सुन्दर कविता की इच्छा न रखूँ । हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो ॥४॥ मम जन्मनि जन्मनीश्वरे, भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥
अयि नन्दतनुज किंकरं, पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज, स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥
भावार्थ : हे नन्द के पुत्र, इस दुर्गम भव-सागर में पड़े हुए मुझ सेवक को अपने चरण कमलों में स्थित धूलि कण के समान समझ कर कृपा कीजिये ॥५॥ कृपया तव पादपंकज, स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥
भावार्थ : हे प्रभु, कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा, कब मेरी मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी, कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥ पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
भावार्थ : श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान है॥७॥ शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा, मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो, मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥८॥
भावार्थ : उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वह आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं॥८॥यथा तथा वा विदधातु लम्पटो, मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥८॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥