॥ पञ्चपद्यानि ॥


श्रीकृष्णरसविक्षिप्त-मानसा रतिवर्जिताः।
अनिर्वृतालोकवेदे ते मुख्याः श्रवणोत्सुकाः॥(१)
भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में पूर्ण मन से लीन रहने वाले, अन्य आकर्षणों से विरक्त रहने वाले, लौकिक और पारलौकिक चर्चाओं से दूर रहने वाले, श्रवण की इच्छा रखने वाले श्रोताओं में प्रमुख हैं।(१)

विक्लिन्नमनसो ये तु भगवत्स्मृतिविह्वलाः।
अर्थेकनिष्ठास्ते चापि मध्यमाः श्रवणोत्सुकाः॥(२)
भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण को आंशिक रूप से याद करने वाले,  उनके स्मरण में भाव-विभोर होने वाले और किसी प्रयोजन (मोक्ष आदि) के लिए भक्ति करने वाले, श्रवण की इच्छा रखने वाले श्रोताओं में मध्यम कहे गए हैं।(२)

निःसंदिग्धं कृष्णतत्त्वं सर्वभावेन ये विदुः।
ते त्वावेशात्तु विकला निरोधाद्वा न चान्यथा॥(३)
भावार्थ:- जो बिना किसी संशय के भगवान श्रीकृष्ण को सब प्रकार से तत्त्वतः जानते हैं, जो तत्त्व के आवेश और निरोध से विकल हो जाते हैं पर अन्य प्रकार से नहीं।(३)

पूर्णभावेन पूर्णाथाः कदाचित् तु सर्वदा।
अन्यासक्तास्तु ये केचिदधमाः परिकीर्तिताः॥(४)
भावार्थ:- जो कभी-कभी ही पूर्ण भाव से भगवान श्रीकृष्ण को सब प्रकार से जानते हैं और प्रायः अन्यत्र ही आसक्त रहते हैं, उनको निम्न कोटि का श्रोता कहा गया है।(४)

अनन्यमनसो मर्त्या उत्तमाः श्रवणादिषु।
देशकालद्रव्यकर्तृ-मन्त्रकर्मप्रकारतः॥(५)
भावार्थ:- स्थान, समय, वस्तु, कर्ता, मंत्र और कर्म के भाव से असक्त, अनन्य मन से भगवान श्रीकृष्ण के बारे में सुनने वाले मनुष्य उत्तम कहे गए हैं।(५)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥