॥ धन्याष्टकम् ॥


तत्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां, तत्ज्ञेयं यदुपनिषत्सुनिश्चितार्थम्।
ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाः, शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमंतः॥ (१)
भावार्थ : ज्ञान वही होता है, जिससे इन्द्रियों की चंचलता शांत होती है, जानने योग्य वही होता है जिसका अर्थ उपनिषदों द्वारा सुनिश्चित किया गया है। जिन लोगों का इस पृथ्वी पर परमार्थ ही एक मात्र निश्चित उद्देश्य होता है, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं, बाकी लोग तो इस मोह रूपी संसार में भ्रमित होकर घूमते ही रहते हैं। (१)

आदौ विजित्य विषयान्मोहराग, द्वेषादिशत्रुगणमाह्रतयोगराज्याः।
ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या, कांतासुखं वनगृहे विचरन्ति धन्याः॥ (२)
भावार्थ : जो लोग मोह, राग, द्वेष आदि शत्रुओं और विषयों की इच्छा को आरंभ में ही जीत कर योग साधना में प्रवृत्त हो जाते हैं। जो लोग ज्ञान के द्वारा ब्रह्म का अनुभव करके आत्म-विद्या रूपी पत्नी के साथ एकान्त रूपी घर में शान्ति-पूर्वक रहते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (२)

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूताम्, आत्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबन्तः।
वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता, धन्याश्चरंतिविजनेषु विरक्तसंगाः॥ (३)
भावार्थ : जो लोग अधो-गति का मूल कारण घर की आसक्ति को छोड़कर स्वयं को जानने के लिए उपनिषदों का वास्तविक अर्थ रूपी रस पीते हैं। जो लोग सभी विषय भोगों की आसक्ति और सभी प्रकार के पद की कामनाओं से विरक्त होते हैं, ऎसे विरक्त भाव वाले लोग एकांत में रहने वाले विरक्त संतों की संगति करते है, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (३)

त्यक्त्वा ममाहमिति बंधकरे पदे द्वे, मानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।
कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानि, कुर्वन्ति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः॥ (४)
भावार्थ :जो लोग 'मैं' और 'मेरा' इन दो बांधने वाले महान पदों का त्याग करके मान और अपमान में समान रहकर सभी को समान दृष्टि से देखते हैं। जो लोग आत्मा को ही एक मात्र कर्ता समझकर सभी कर्म-फलों को परमात्मा को अर्पित करते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (४)

त्यक्त्वैषणात्रयमवेक्षितमोक्षमार्गा, भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।
ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञं, धन्या द्विजारहसि हृद्यवलोकयन्ति॥ (५)
भावार्थ : जो लोग पुत्र-सुख, वित्त-सुख और लोक-सुख तीनों प्रकार की कामनाओं का त्याग करके मोक्ष के मार्ग की खोज करते हैं, और जो भिक्षा रूपी अमृत पर ही आश्रित होकर शरीर की यात्रा पूर्ण करते हैं। जो लोग आत्मा से भी परे परमात्मा के ज्ञान प्रकाश को हृदय में देखते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (५)

नासन्न सन्न सदसन्न महन्न चाणु, न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेक बीजम्।
यैर्ब्रह्म तत्समनुपासितमेक चितैः, धन्या विरेजुरितरे भवपाश बद्धाः॥ (६)
भावार्थ : जो न तो सत्य है, न ही असत्य है, न विशाल है, न सूक्ष्म है, न स्त्री है, न पुरुष है, और न नपुंसक ही है, जो लोग इन सभी के मूल कारण रूप ब्रह्म की एकाग्र चित्त होकर उपासना करते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं, अन्य लोग तो जन्म-मृत्यु रूपी भवपाश के बन्धन जकड़े रहते हैं। (६)

अज्ञानपंकपरिमग्नमपेतसारं, दुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम्।
संसारबंधनमनित्यमवेक्ष्य धन्या, ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति॥ (७)
भावार्थ : जो लोग अज्ञान रूपी दलदल में न फंसकर, महत्वहीन दुखों की खान, जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था वाले संसार मे आसक्त नहीं होते हैं। ऎसे संसार रूपी बंधन को अनित्य समझकर ज्ञान रूपी तलवार से काटने का निश्चय करते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (७)

शांतैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावैः, एकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः।
साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरूपं, तद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्याः॥ (८)
भावार्थ : जो लोग शांत-चित्त से, स्थिर-बुद्धि से, मधुर-स्वभाव से और मन से दृड़ संकल्प के साथ मोहग्रस्त नही होते हैं। जो लोग एकान्त में रहकर निरन्तर ब्रह्म विचारों में लीन आत्म पद पर स्थित रहते हैं, वही ईश्वर के कृपा-पात्र होते हैं। (८)

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥