यथा भक्तिः प्रवृद्धा स्यात्तथोपायो निरूप्यते।
बीजभावे दृढ़े तु स्यात्यागाच्छ्रवणकीर्तनात्॥ (१)
भावार्थ : जिस विधि से भक्ति वृद्धि को प्राप्त होती है, उस विधि का निरूपण किया जाता है, सांसारिक आसक्ति के त्याग से, कृष्ण कथा सुनने से और कृष्ण नाम के कीर्तन से ही भक्ति रूपी बीज दृढ़ स्थित होता है। (१) बीजभावे दृढ़े तु स्यात्यागाच्छ्रवणकीर्तनात्॥ (१)
बीजदाढ्र्यप्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः।
अव्यावृत्तो भजेत्कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः॥ (२)
भावार्थ : घर में रहकर ही अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए ही भक्ति का बीज दृढ़ होता है, सांसारिक इच्छाओं को सीमित कर मन को स्थिर करके मूर्ति पूजा के द्वारा, कथा श्रवण आदि विधियों से भगवान श्रीकृष्ण का भजन करना चाहिये। (२) अव्यावृत्तो भजेत्कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः॥ (२)
व्यावृतोपि हरौ चित्तं श्रवणादौ यतेत्सदा।
ततः प्रेम तथासक्तिर्व्यसनं च यदा भवेत्॥ (३)
भावार्थ : सांसारिक इच्छाओं के होते हुए भी चित्त को श्रीहरि के श्रवण आदि में प्रयत्न करके निरन्तर लगाये रखना चाहिए, और तब तक लगाये रखना चाहिये जब तक भगवान से प्रेम तथा आसक्ति और राग उत्पन्न न हो जाये। (३) ततः प्रेम तथासक्तिर्व्यसनं च यदा भवेत्॥ (३)
बीजं तदुच्यते शास्त्रे दृढ़ं यन्नापि नश्यति।
स्नेहाद्रागविनाशः स्यादासक्त्या स्याद् गृहारुचिः॥ (४)
भावार्थ : शास्त्रों के अनुसार भक्ति के बीज को तभी दृढ़ स्थित कहा जा सकता है जब-तक अन्य किसी के प्रति प्रेम और आसक्ति नहीं रह जाती है और घर के प्रति स्वत: ही आसक्ति का अन्त नहीं हो जाता है। (४) स्नेहाद्रागविनाशः स्यादासक्त्या स्याद् गृहारुचिः॥ (४)
गृहस्थानां बाधकत्वमनात्मत्वं च भासते।
यदा स्याद्वयसनं कृष्णे कृतार्थः स्यात्तदैव हि॥ (५)
भावार्थ : जब घर एक बाधक और शरीर, आत्मा से अलग लगने लगता है, केवल श्रीकृष्ण की भक्ति ही एकमात्र कर्म हो जाता है, तभी प्राणी कृतार्थ हो पाता है। (५) यदा स्याद्वयसनं कृष्णे कृतार्थः स्यात्तदैव हि॥ (५)
तादृशस्यापि सततं गृहस्थानं विनाशकम्।
त्यागं कृत्वा यतेद्यस्तु तदर्थार्थैकमानसः॥ (६)
भावार्थ : इस प्रकार भक्ति के प्राप्त होने पर भी सदैव घर में निवास करने से भक्ति के विनाश हो जाता है, इसलिए घर का त्याग करके मन को भगवान की भक्ति में स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये। (६) त्यागं कृत्वा यतेद्यस्तु तदर्थार्थैकमानसः॥ (६)
लभते सुदृढ़ां भक्तिं सर्वतोप्यधिकां पराम्।
त्यागे बाधकभूयस्त्वं दुःसंसर्गात्तथान्नतः॥ (७)
भावार्थ : इस प्रकार निरन्तर प्रयत्न करने से सम्पूर्ण रूप से शुद्ध-भक्ति में स्थिरता प्राप्त हो जाती है, घर त्याग करने में दुष्ट लोगों की संगति और भोजन प्रमुख बाधाएँ होती हैं। (७) त्यागे बाधकभूयस्त्वं दुःसंसर्गात्तथान्नतः॥ (७)
अतस्थेयं हरिस्थाने तदीयैः सह तत्परेः।
अदूरे विप्रकर्षे वा यथा चित्तं न दुष्यति॥ (८)
भावार्थ : इसलिए भगवान के मंदिर के समीप तथा भक्तों के साथ निवास करना चाहिये, भक्तों के पास रहें या भक्तों से दूर रहें लेकिन इस प्रकार रहना चाहिये जिससे मन दूषित न हो सके। (८) अदूरे विप्रकर्षे वा यथा चित्तं न दुष्यति॥ (८)
सेवायां वा कथायां वा यस्यासक्तिर्दृढ़ा भवेत्।
यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर्मम॥ (९)
भावार्थ : भगवान की सेवा करने से या भगवान की कथा श्रवण करने से जिस प्रकार से भी भगवान के प्रति आसक्ति दृड़ हो सके, इस प्रकार जीवन की अन्तिम श्वांस तक सेवा या श्रवण करते रहना चाहिए, ऐसा श्रीवल्लभाचार्य जी का कथन है। (९) यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर्मम॥ (९)
बाधसंभावनायं तु नैकान्ते वास इष्यते।
हरिस्तु सर्वतो रक्षां करिष्यति न संशयः॥ (१०)
भावार्थ : किसी बाधा की संभावना से एकान्त में रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिये बल्कि भय मुक्त होकर एकान्त में रहना चाहिये, क्योंकि भगवान श्रीहरि निश्चित रूप से सभी प्रकार से रक्षा करते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिये। (१०) हरिस्तु सर्वतो रक्षां करिष्यति न संशयः॥ (१०)
इत्येवं भगवच्छास्त्रं गूढतत्वं निरूपितम्।
य एतत्समधीयीत तस्यापि स्याद् दृढ़ा रतिः॥ (११)
भावार्थ : इस प्रकार भगवत प्राप्ति की इच्छा वालों के लिये शास्त्रों के गूढ़ तत्त्व का निरूपण किया गया है, जो भी इस विधि का दृड़ता-पूर्वक पालन करता है, वह भगवान में दृढ़ स्थित हो ही जाता है। (११)य एतत्समधीयीत तस्यापि स्याद् दृढ़ा रतिः॥ (११)
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥