श्रावण स्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि।
साक्षात् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते॥ (१)
भावार्थ : श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि की महारात्रि के समय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा मुझसे जो बचन कहे गए हैं उन बचनों को मैं उसी प्रकार से कहता हूँ। (१)साक्षात् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते॥ (१)
ब्रह्म सम्बंध करणात् सर्वेषां देहजीवयोः।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥ (२)
भावार्थ : मुझ ईश्वर से किसी भी रूप में अपना सम्बन्ध जोड़ने से समस्त शरीरधारी प्राणी सभी प्रकार के दोषों से मुक्त हो जाते हैं, जो कि स्मृतियों में पाँच प्रकार के कहे गये हैं। (२) सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥ (२)
सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः।
संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कथन्चन॥ (३)
भावार्थ : सामान्य रूप से देश के लिये, समय के अनुसार, सामाजिक मान्यता के अनुसार, वेदों में वर्णित यज्ञ द्वारा, और संयोगवश स्पर्श से होने वाले कोई भी कार्यों को अपने द्वारा न मानते हुए कार्य करते रहना चाहिये। (३)संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कथन्चन॥ (३)
अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथन्चन।
असमर्पितवस्तुनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्॥ (४)
भावार्थ : अन्य किसी प्रकार से समस्त दोषों का निवारण संभव नहीं है, इसलिए जो वस्तु मुझको समर्पित नहीं की जाती है, उस वस्तु का किसी भी अवस्था में स्वीकार नहीं करनी चाहिये। (४) असमर्पितवस्तुनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्॥ (४)
निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः।
न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तं समर्पणं॥ (५)
भावार्थ : निवेदन करते हुए समस्त वस्तुओं को सभी स्थिति में मुझको ही समर्पित करनी चाहिए, अन्य देवी या देवताओं को अर्पित की गयी वस्तु को मुझे कभी समर्पित नहीं करनी चाहिये। (५) न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तं समर्पणं॥ (५)
तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तु समर्पणम्।
दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरेः॥ (६)
भावार्थ : इस प्रकार सभी कार्यों के प्रारंभ में ही समस्त कार्यों को मुझे समर्पित कर देनी चाहिये, मन से, वाणी से और शरीर द्वारा किये गये सभी कार्य श्रीहरि के लिये ही होने चाहिये। (६) दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरेः॥ (६)
न ग्राह्ममिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्।
सेवकानां यथालोके व्यवहारः प्रसिध्यति॥ (७)
भावार्थ : मेरे द्वारा कहे गये शब्दों के अतिरिक्त अन्य किसी भी मार्ग का अनुसरण नहीं करना चाहिये, भक्तों का जो आचरण संसार में विख्यात है उसी का ही अनुसरण करना चाहिये। (७) सेवकानां यथालोके व्यवहारः प्रसिध्यति॥ (७)
तथा कार्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।
गंगात्वं सर्वदोषाणां गुणदोषादिवर्णना।
गंगात्वेन निरूप्या स्यात्तद्वदत्रापि चैव हि॥ (८)
भावार्थ : इस प्रकार प्राणी समस्त कार्यों को मुझे समर्पित करके परमब्रह्म परमात्मा के समान पवित्र हो जाते हैं, जिस प्रकार गंगा में मिलकर सभी प्रकार के अपवित्र जल गंगा के समान पवित्र हो जाते हैं, गंगा के निरुपण के अनुसार ही इसे समझना चाहिये। (८)गंगात्वं सर्वदोषाणां गुणदोषादिवर्णना।
गंगात्वेन निरूप्या स्यात्तद्वदत्रापि चैव हि॥ (८)
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥